Eid Milad-un-Nabi 2025: हर इंसान की ज़िंदगी में कुछ ऐसे दिन होते हैं जो सिर्फ कैलेंडर की तारीखें नहीं, बल्कि दिल की गहराइयों को छू लेने वाले मौके होते हैं। मुसलमानों के लिए ईद मिलाद-उल-नबी भी ऐसा ही एक दिन है, जो पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब की यादों और उनकी सीखों से जुड़ा हुआ है। यह पर्व रबी-उल-अव्वल महीने की 12वीं तारीख को मनाया जाता है और इस साल 2025 में यह लगभग 4 या 5 सितंबर को पड़ने की उम्मीद है, जिसका सही दिन चांद देखकर तय होगा।
इतिहास और महत्व
ईद मिलाद-उल-नबी की शुरुआत इस्लामिक इतिहास के शुरुआती दौर से जुड़ी है। माना जाता है कि पैगंबर मुहम्मद का जन्म 570 ईस्वी में मक्का में हुआ था। इस दिन को “मौलिद” भी कहा जाता है, जिसका मतलब है “जन्म”। दिलचस्प बात यह है कि कुछ लोग इसे सिर्फ खुशी का दिन मानते हैं, जबकि कुछ मुसलमान इसे पैगंबर साहब की पुण्यतिथि के रूप में भी याद करते हैं।
सबसे पहले इस पर्व को मिस्र में आधिकारिक रूप से मनाया गया था। 11वीं सदी में यह जश्न तेजी से फैला और सीरिया, तुर्की, मोरक्को और स्पेन तक इसकी परंपरा पहुँच गई। शुरुआती दौर में इसे केवल शिया शासक ही मनाते थे, लेकिन धीरे-धीरे सुन्नी समुदाय के कई हिस्सों ने भी इसे अपनाया।
जश्न और रौनक
ईद मिलाद-उल-नबी का जश्न मोहब्बत और ईमान का पैगाम देता है। पुराने समय में लोग कुरान की तिलावत करते थे, दुआएं पढ़ते थे और बड़े-बड़े भोज आयोजित किए जाते थे। सुफी परंपरा के आने के बाद इसमें नये रंग भर गए—रात के समय मशालों के साथ जुलूस निकलने लगे, सार्वजनिक भाषण होने लगे और गरीबों को खाना खिलाया जाने लगा।
आज के दौर में भी यह पर्व उतनी ही रौनक और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। लोग नए कपड़े पहनते हैं, मस्जिदों और दरगाहों में इकट्ठा होकर सुबह की नमाज अदा करते हैं, और पैगंबर मुहम्मद साहब की जिंदगी और उनकी हिदायतों को बच्चों तक पहुंचाते हैं। कई जगहों पर जुलूस निकाले जाते हैं और गरीबों की मदद की जाती है। यह दिन हमें इंसानियत, मोहब्बत और रहमत का पैगाम याद दिलाता है।
इंसानियत का पैगाम
ईद मिलाद-उल-नबी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं है, बल्कि यह हमें सिखाता है कि एक अच्छे इंसान की पहचान उसकी दुआओं, उसके कर्मों और उसकी मोहब्बत में छिपी होती है। पैगंबर साहब ने अपनी पूरी जिंदगी इंसानियत, बराबरी और अमन का संदेश दिया, और यही इस दिन का सबसे बड़ा संदेश है।
निष्कर्ष:-
ईद मिलाद-उल-नबी का पर्व हमें यह याद दिलाता है कि पैगंबर मुहम्मद साहब की सीखें सिर्फ मुसलमानों के लिए नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत के लिए थीं। जब लोग मिलजुलकर मोहब्बत और दुआओं का सिलसिला आगे बढ़ाते हैं, तभी इस पर्व का असली मकसद पूरा होता है।
डिस्क्लेमर: यह लेख सामान्य जानकारी और ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है। इसका उद्देश्य केवल पाठकों को धार्मिक और सांस्कृतिक जानकारी देना है। किसी भी धार्मिक रीति-रिवाज को मानने या अपनाने का निर्णय व्यक्तिगत आस्था पर निर्भर करता है।
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